Thursday, July 28, 2011

अन्ना हजारे, भ्रस्टाचार और मैं...
प्रेमचंद की कहानियो में अक्सर नायक अपनी ज़िन्दगी में उलझा रहता है. उसके आसपास आज़ादी की लड़ाई चलती रहती है, लेकिन उसे अपनी ज़िन्दगी से ही फुर्सत नहीं. आज़ादी के समय हमारे देश की आबादी 35 करोड़ थी. उनमे से कितने थे जो आज़ादी के लिए लड़े? क्यों इतने सारे लोग मुठी भर अंग्रेजो के गुलाम रहे? बहुत बार ये सवाल मेरे मन में आता है.... लेकिन जवाब शायद अब मिला है...हम सब भ्रस्टाचार(आज के अँगरेज़) से छुटकारा चाहते है.. अन्ना हजारे और कुछ लोग (सवंत्रता सेनानी)  इसके खिलाफ लड़ भी रहे है, लेकिन ज़्यादातर भारतीय (मैं भी) अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में ही उलझे हुए है. अन्ना की लड़ाई हमारे लिए एक खबर ही है, हो सकता है की बहुत से लोगो की शुभ कामनाए अन्ना के साथ हो, लेकिन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक रूप से हम कुछ नहीं कर रहे है.. हम भी प्रेमचंद की कहानियो के लाचार और स्वार्थी नायक है...
फिर सोचता हूँ की अन्ना की लड़ाई कितनी ठीक है? गाँधीजी ने भी देश आजाद कराया था, लेकिन क्या आज के लिए? दोष मुठी भर भ्रष्ट नेताओ का नहीं, बल्कि हमारे समाज का है. उन नेताओ को भी तो हमने ही बनाया. 
गाँधी जी ने कहा इलाज बीमार का नहीं बीमारी का करो. हमारी बीमारी हम सवयं, हमारा समाज है - जातिवाद, चरित्र की कमी है... क्या इसका कोई इलाज है?


Saturday, July 23, 2011

धर्म और कर्म 
एक बार डाकूंओ ने एक नौटंकी वाली को अपने मनोरंजन के लिए बुलाया. खुश हो कर डाकूंओ ने उसे बहुत धन दिया. नौटंकी वाली कुछ ही दूर गयी थी की डाकू आ गए, उसे मारा-पीटा और धन लूट कर ले गए. वो वापस डाकूंओ के सरदार के पास गयी और बोली, सरदार अगर लूटना ही था तो दिया ही क्यों, और पिटाई भी क्यों की? 
सरदार ने कहा - तुम्हे तुम्हारी मेहनत के पैसे देना हमारा धर्म था, और तुम्हे लूटना हमारा कर्म था. 
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